हर तरफ आवाजें हैं....
मेरी
तुम्हारी
उसकी
टुकड़ों-टुकड़ों में....
जो
गूंज उठती है
सन्नाटे में
धुंध में जकड़ी
सूखे में अकड़ी
कुछ
चलती-फिरती आकृतियाँ
गुज़रती हैं
मंडराती हैं साये की तरह............
हर साये में लिपटे
अनगिनत
इच्छाओं के ताबीज़
प्रार्थनाओं के स्वर
मन्नतों के लिए झुके मत्थे
मंजिल तक पहुँचने की ललक में.......
क़दमों में पड़े छालों के बिना जुते खेत
जिनसे
रिस रही इच्छाएं
भावनाएं
अव्ज्ञाएं
आक्रोश
असहमतियां
खेत को उर्वर बनाने...
चल रही तमाम कोशिशें...........
साजिशों की फिसलन में
कोशिश
हर बार
गहरी खाई में गिरती
पर
किसी बच्चे की जिद की तरह
वो
हर बार चढ़ती
इस जिद में
समाया है
अब्बू खां की बकरी का जुनूँ
जिसे
डर की लहर ने सिहराया नहीं......
आशंकाओं ने
डिगाया नहीं........
वह
चढ़ती चली गयी
उस तरह
जैसे
एक कविता
जब आरम्भ होती है
तो
फिर उसे
कोई नहीं रोक सकता
ठीक उसी तरह
जैसे
पथरीले पहाड़ में भी
मिटटी के चंद कणों में ही
फूट आता है
पौधा
हँसता-खिलखिलाता
बर्फीली-तूफानी हवा को
चुनौती देता......
शब्द जैसे
सबकी
आवाज़ बनते हैं...
विरोध दर्ज़ करते हैं.....
ठीक
इसी तरह
कोशिशें
पड़ाव-दर-पड़ाव
यात्रा पूरी करेंगी
नयी कोशिशों से हाथ मिलाने......
और
नयी कविता रचने
मेरी
आपकी
सबकी...............
4 टिप्पणियां:
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... ... ...
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अर्पिता जी, अच्छा लिख रही हैं. लिखते रहें... शुभकामनायें.
bahut sundar kavita badhai
bahut sundar kavita badhai
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