शुक्रवार, 15 अक्तूबर 2010

मन

प्यासी धरती के
उर से
आह निकल-निकल
करती विकल.

मन चपल-चपल
धरता उमंग
बन पतंग डोर
करें शोर-जोर.

हर खींच-तान
करे मगन मन
चल मगन चाल
कर तेज़ चाल.

हर बार हृदय
नव-कुसुम बन
रच रहा खेल
बसंत-बसंत.

पल-पल रूप बदल
कर फुदक-फुदक
करता श्रृंगार
नव-प्रीति  सा.

खुद को निहार
करे ये सवाल
अब कौन डगर
चलूँ अवश चाल
हर डगर सुस्त
हर मोड़ सुस्त
अब नहीं चुस्त
मेरे मन का हाल.

1 टिप्पणी:

प्रशान्त ने कहा…

ये खींच-तान मची ही रहेगी.
मन का वसंत ऋतु बद्ले न कभी.
आमीन.