हंस रही हूँ क्योंकि
मन-विग्रह बिखरा
कण-कण वहां
जहाँ टीला त्रास का....
अपने सारे दुखों को
हवि आहुति देकर
भावना की नदी में....
चुप हूँ क्योंकि
शब्द बादल बन जा उड़े
थम गए वहां
किया समर्पित ध्वनि समेत
जहाँ झरते झरने झर-झर
भावना की नदी में......
ढूंढ़ रही हूँ खुद को क्योंकि
खो चुकी अनजान बनकर
भटक रही वहां..जहाँ
उगते मन मगन तरु
अपनी इच्छाओं के बीज धरकर
हाथ थामे बढ़ रही
भावना की नदी में.....
चल रही हूँ क्योंकि
विश्राम स्थली गंतव्य है
स्वयं से दूर वहां फैले शांति वृक्ष हैं
जड़-चेतन को पुकारते
निर्वाण..निर्वाण.....क्षण-प्रतिक्षण......
भावना की नदी में...........
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