चीड़ों पर
पहाड़ों पर
चमकती चांदनी-सी
निश्छल..निष्कपट..
मचलती तितली की तरह..
फुदकती गिलहरी की तरह
शाख-शाख चढ़ती-उतरती
कहीं चुम्बन
कहीं गलबहियां डाल
गरमाहट भर
अखरोट के कवच-सी सुरक्षा देती
फुनगियों पर दौड़ती
फुरफुराहट में
प्यार की मिश्री घोल
हवा में बिखेरती...
हाथ बढ़ा
मुट्ठियों में कैद करने की गरज
बेजार करती
हाथों को महका
रूप-रस में घुल जाती
प्राण-सुर मिलाती
पुकारती सोनचिरैया-सी
बिखर जाने रग-रग में
औषधि बनकर.........
2 टिप्पणियां:
ताजगी से भरी एक कविता।
यादें ऐसी ही होती हैं ... पता नहीं क्यूँ चुपके से चली आती हैं ... बहुत अच्छी राक्स्हना है ...
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