रविवार, 17 अक्तूबर 2010

अनुकूलन

अनुकूल हवा
अनुकूल मौसम
अनुकूल तन-मन
अनुकूल काल-बेला
सब कुछ अनुकूल-
जीवित-अजीवित
चल-अचल
दृश्य-अदृश्य
जाने
कितने संयोगों का योग है
ये
छोटा-सा
तसल्ली देता शब्द
'अनुकूलन'
इसकी खोज में व्यस्त
मानव
भागता,
बैचैन होता
दर-दर की ठोकर खाता
फिर भी
खुद को न बदलता
नियति मान
निरंतर बढ़ता
और
बढ़ता जाता.

सृष्टि निर्माण से
अब तक
पाँव थमे नहीं
बल्कि
इस भाव की प्यास
बढ़ी
और बढ़ी ही है
इसने 
जन्म  दिए
कई ऐसे भाव
जो
दबे हुए थे
पृथ्वी के गर्भ में
जिसके
जन्म से
उपजी
असहनीय पीड़ा
वो
आज तक सह रही है
निरंतर
निर्विकार.

इस पीड़ा में छुपे
कई गहरे-ज़हरीले घाव
दुःख
दर्द
क्षोभ
विद्वेष
विनाश
और
प्रतिकूलताओं के.
जो
युग-दर युग
किसी ज्वालामुखी से
अपने आकार को
अपने रूप को
और
अपनी प्रकृति को
एक पल भी
नष्ट किये बगैर
बढ़ा रहे हैं.
अट्टहास कर रहे हैं
उन
विद्रूपताओं पर
जो
हमने
उकेरे  हैं धरती की चादर में.

उसके
अंग-अंग
क्षत-विक्षत कर
कुछ कर पाने के
छोटे से सुख से उपजी विश्रांति को
अनुभूत कर पा रहे हैं.
अपनी
उत्तेजना के औजारों को
नाम दे रहे जीवन का
सौंदर्य दृष्टि का.
जड़ों से उखाड़ नहीं पा रहे
मुक्त नहीं कर पा रहे
देह की
मन की 
कुरूपताओं को.
हर बार
सजा रहे
रच रहे
नयी
अद्भुत मिसाल.
जिस से
बह रही घृणा  की 
अजस्त्र धारा
रक्त बन धमनियों में
शक्ति की उपासना करता.
मुक्त कर रहे
एक पल नष्ट किये बिन
कुकुरमुत्तों के
अनगिनत भ्रूण
जहाँ
पहुँच
थोड़ा सुख मिल सके
स्व-सृजन का
अनुकूलन
चरम आनंद का.

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