हवा
हवा आई
फुनगियाँ हिला
पंखुरियां खिला
आगे बढ़ गयी.
हर डार-डार
हर पात-पात
फुदकी-चहकी
कनीनिका संग.
कभी शांत चले
कभी क्लांत दिखे
बरसे-हरषे
हुददंग करे.
जाने कौन देस
करे अपना ठौर
मन तरंग-रंग
भटके चहुँ ओर.
स्निग्ध-तरल
उजली-उजली
महकी-बहकी
कर उत्सव्गान.
शांत-सुस्त
हर दिशा-छोर
बहा ले चली
सुर-लय में ढाल.
जहाँ ताल शांत
लहराए लहर
कानन नीरवता
चहकाए शोर.
न देस की
न विदेस की
न आकाश की
न पाताल की
उड़ती है यूँ
विहग
-गान अनंत
बसती है बन
मन श्वांस-राग
रचती है धरा
धर प्रीत असीम......
1 टिप्पणी:
जाने कौन देस
करे अपना ठौर
मन तरंग-रंग
भटके चहुँ ओर.
हवा के साथ बहते जाना अच्छा लगा.
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