शनिवार, 16 अक्तूबर 2010

हवा


हवा आई
फुनगियाँ हिला 
पंखुरियां खिला 
आगे बढ़ गयी.

हर डार-डार
हर पात-पात
फुदकी-चहकी
कनीनिका संग.

कभी शांत चले
कभी क्लांत दिखे
बरसे-हरषे
हुददंग करे.

जाने कौन देस
करे अपना ठौर
मन तरंग-रंग
भटके चहुँ ओर.

स्निग्ध-तरल
उजली-उजली
महकी-बहकी
कर उत्सव्गान.

शांत-सुस्त
हर दिशा-छोर
बहा ले चली
सुर-लय में ढाल.

जहाँ ताल शांत
लहराए लहर
कानन नीरवता
चहकाए  शोर.

न देस की
न विदेस की
न आकाश की
न पाताल की 
उड़ती है यूँ
विहग-गान अनंत
बसती है बन
मन श्वांस-राग
रचती है धरा
धर प्रीत असीम...... 

1 टिप्पणी:

प्रशान्त ने कहा…

जाने कौन देस
करे अपना ठौर
मन तरंग-रंग
भटके चहुँ ओर.

हवा के साथ बहते जाना अच्छा लगा.