प्यासी धरती के
उर से
आह निकल-निकल
करती विकल.
मन चपल-चपल
धरता उमंग
बन पतंग डोर
करें शोर-जोर.
हर खींच-तान
करे मगन मन
चल मगन चाल
कर तेज़ चाल.
हर बार हृदय
नव-कुसुम बन
रच रहा खेल
बसंत-बसंत.
पल-पल रूप बदल
कर फुदक-फुदक
करता श्रृंगार
नव-प्रीति सा.
खुद को निहार
करे ये सवाल
अब कौन डगर
चलूँ अवश चाल
हर डगर सुस्त
हर मोड़ सुस्त
अब नहीं चुस्त
मेरे मन का हाल.
1 टिप्पणी:
ये खींच-तान मची ही रहेगी.
मन का वसंत ऋतु बद्ले न कभी.
आमीन.
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