शनिवार, 30 अक्तूबर 2010

यादें


चीड़ों पर
पहाड़ों पर
चमकती चांदनी-सी
निश्छल..निष्कपट..
मचलती तितली की तरह..
फुदकती गिलहरी की तरह
शाख-शाख चढ़ती-उतरती
कहीं चुम्बन
कहीं गलबहियां डाल
गरमाहट भर
अखरोट के कवच-सी सुरक्षा देती
फुनगियों पर दौड़ती
फुरफुराहट में
प्यार की  मिश्री घोल
हवा में बिखेरती...
हाथ बढ़ा
मुट्ठियों में कैद करने की गरज
बेजार करती
हाथों को महका
रूप-रस में घुल जाती
प्राण-सुर मिलाती
पुकारती सोनचिरैया-सी
बिखर जाने रग-रग में
औषधि बनकर.........
 

दिल

दिल का
एक छोटा सा हिस्सा
रोशन धूप से
भीगा जल से
पसीजा ओस से
सहेजा स्नेह से
पगा भावों से
मचला इच्छाओं से
बहका आमद से
और
फिर डूब गया
पूरा का पूरा
प्यार से.........

रात

अंधेरो की गर्द उड़ती
सूखा तूफ़ान लिए
गुबार उड़ाती
बादल बनाती
सरक रही मद्धम-मद्धम....
मन की पहेलियों में गुम्फित
विचारों में विचलित
शब्दों के बादल उमड़ाती
उमड़ती-घुमड़ती...
राहें तकती
पर
वो
बरसती  नहीं
घुट जाती
गुम जाती
भाप बन उड़ जाती
रह जाती प्यास
विकलता से आहत क्षत-विक्षत...

चाहत ‎.


काश!!
शाम की आहट
एक ठंडक दे जाती...
आह कॊ छीन ले जाती....
महक बिखेर जाती.....
बस...इसी ख्वाहिश में तर-बतर हूं...
एक
सूखे-कुरकुरे प्रेम की दस्तक
जो
मन की कंदराओं में जमी काई साफ़ कर
उजास भर दे...
गरमाहट से भीगा रेशा दे दे
जिसे लपेट
कडक,ठिठुरन से बिछ्ड
उड सकूं मुक्त आकाश में.........

सोमवार, 25 अक्तूबर 2010

कविता रचने की कोशिशें

 
हर तरफ आवाजें हैं....
मेरी
तुम्हारी
उसकी
टुकड़ों-टुकड़ों में....
जो
गूंज उठती है
सन्नाटे में
धुंध में जकड़ी
सूखे में अकड़ी
कुछ
चलती-फिरती आकृतियाँ
गुज़रती हैं
मंडराती हैं साये की तरह............
 
हर साये में लिपटे
अनगिनत
इच्छाओं के ताबीज़
प्रार्थनाओं  के स्वर
मन्नतों के लिए झुके मत्थे
मंजिल तक पहुँचने की ललक में.......
 
क़दमों में पड़े छालों के बिना जुते खेत
जिनसे
रिस रही इच्छाएं 
भावनाएं
अव्ज्ञाएं
आक्रोश
असहमतियां
खेत को उर्वर बनाने...
 
चल रही तमाम कोशिशें...........
 
साजिशों की फिसलन में
कोशिश  
हर बार
गहरी खाई में गिरती
पर
किसी बच्चे की जिद की तरह
वो
हर बार चढ़ती
इस जिद में
समाया है
अब्बू खां की बकरी का जुनूँ
जिसे
डर की लहर ने सिहराया नहीं......
आशंकाओं ने
डिगाया नहीं........
वह
चढ़ती चली गयी
उस तरह
जैसे
एक कविता
जब आरम्भ होती है
तो
फिर उसे
कोई नहीं रोक सकता
ठीक उसी तरह
जैसे
पथरीले पहाड़ में भी
मिटटी के चंद कणों में ही
फूट आता है
पौधा
हँसता-खिलखिलाता
बर्फीली-तूफानी हवा को
चुनौती देता......
 
शब्द जैसे
सबकी
आवाज़ बनते हैं...
विरोध दर्ज़ करते हैं.....
ठीक
इसी तरह
कोशिशें
पड़ाव-दर-पड़ाव
यात्रा पूरी करेंगी
नयी कोशिशों से हाथ मिलाने......
और
नयी कविता रचने
मेरी
आपकी
सबकी...............
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 

रविवार, 24 अक्तूबर 2010

सैर

 
सुबह-सवेरे
आँखें मींचते हुए
उठते,
अंगड़ाई लेते
मेरे मन ने
जिद शुरू की मुझसे
कि
मुझे आज....
अभी... जंगल घूमने जाना है....
वहां...
जहाँ
घने पेड़ों की छांह में
फुरसत के दिन सोते हैं....
घनी झाड़ियों से
बिसरे दिन शावक की तरह कूदकर
सिरहाने लग जाते हैं....
छोटे-छोटे पौधों के बीच
हंसी-मुस्कुराहट
आँख-मिचौली करती  हैं....
कहीं-कहीं बीच में उगी
घास के  सूखे तिनके
बीती कंटीली बातों की तरह चुभते
और
ज़िंदा होने का अहसास दिलाते हैं.......
वहां
जाने की अकुलाहट में
ठूंठ से लम्बे दिन की दस्तक को
अनसुना कर
घर के
पीछे के दरवाज़े से
मैं निकल गया लम्बी सैर को.....
ऐसी सैर को
जिसमे लौटने का समय तय नहीं...
सैर की दूरी तय नहीं
ठीक वैसे ही जैसे
किसी बीज को
पता नहीं होता है
 कि
अंकुरण के बाद वो
दुनिया को
कितना अपनी शाखों-प्रशाखाओं से
छू पायेगा....
महसूस कर पायेगा...
आखिर
एक बरगद का
घना-पुराना वृक्ष भी
तो
नहीं जानता अपनी इस सैर के बारे में .....
पर
फिर भी
मन में सवाल आता है
कि
क्या तुम जानते ह़ो इस सवाल का जवाब???
इस सवाल का जवाब
इतना ही आसान होता
अगर
सूरज को पता होता
अपने उगने और ढलने का
अंतिम दिन.......
बादलों को पता होता
अपना आखिरी पड़ाव....
समुंदर को पता होता
अपनी लहरों से जुदाई का आखिर लम्हा......
प्रकृति को पता होता
अपने जादू का अंतिम प्रभाव........
सच!!!
तब
मन का
पक्का ठौर-ठिकाना होता
जाने-पहचाने
अपनाये तौर-तरीके होते...
बरखा-बसंत
शरद-ग्रीष्म के लुभावने रंग
घर के किसी कोने में
धूल खा रहे होते
और
मैं
बिस्तर में
गहरी नींद में
बार-बार
पुराने ह़ो चुके सपनों से
खेल रहा होता.........
 
 

शनिवार, 23 अक्तूबर 2010

क्यों?


हंस रही हूँ क्योंकि
मन-विग्रह बिखरा
कण-कण वहां
जहाँ टीला त्रास का....
अपने सारे दुखों को
हवि आहुति देकर
भावना की नदी में....

चुप हूँ क्योंकि
शब्द बादल बन जा उड़े
थम गए वहां
किया समर्पित ध्वनि समेत
जहाँ झरते झरने झर-झर
भावना की नदी में......

ढूंढ़ रही हूँ खुद को क्योंकि
खो चुकी अनजान बनकर
भटक रही वहां..जहाँ
उगते मन मगन तरु
अपनी इच्छाओं  के बीज धरकर
हाथ थामे बढ़ रही
भावना की नदी में.....

चल रही हूँ क्योंकि
विश्राम स्थली गंतव्य है
स्वयं से दूर वहां फैले  शांति वृक्ष हैं
जड़-चेतन को पुकारते
निर्वाण..निर्वाण.....क्षण-प्रतिक्षण......
भावना की नदी में...........



गुरुवार, 21 अक्तूबर 2010

अफसाने

नये अफसाने......
जो
दस्तक देते
पुकारते खड़े हैं.
उनकी आमद ने
दिल को समझाइश दी है
कि
कुछ देर
इस पड़ाव को मेहमाननवाज़ी का मौका दे दें
जो
इस हुनर से महरूम हों
तो सलीका दे दें....

प्रेम

दस्तक दे पुकारता....
अकेले होने पर
साथ बैठा गपियाता.....

सिरहाने में सपने बन गुदगुदा्ता.....
खुली आंखों में
रोशनी बन दुनिया दिखाता................
बोलो कौन????????????

क्षणिकाएं

छोटी नौका में सवार......
सागर अपार.....
मांझी निराकार..............
मन पतवार खे......
कर रही पार....................
===========
सुबह से शाम तक..............
दस्तक दी हर दर पर मैंने
हासिल हुई न कहीं
चिन्गारी-ए-सुकून...........

============
मन में हज़ार ताले लगा........
चाबियाँ गुमा
भट्कते-फ़िरना.......
पँहुचना वहीं....
उस दरवाज़े पर जहाँ हो.......

=============
उनसे
चंद मुलाकातें हुई.....
चंद बातें हुई........
बस यही कमाया हमने
ज़िन्दगी में........

==============
कभी मुलाकात होगी
रास्ते चलते.....
इसी ख्वाहिश में........
भटकते हैं राहों में............

================
 रात के अंधेरे
सताते हैं मुझे....
दबे पांवों आते है यहाँ
रोज़ मुझसे बतियाते हैं.....
मैं दम साधे सुनती हूँ उसे.....
......और
आहट लेती हूँ
चुप बैठे ढ़ूंढ़ती हूँ....
...........................
सुबह के उजाले को...
मुबारक हो! एक चिड़िया की चहचहाहट  सुनाई दी मुझे.......

=============
इश्क के उड़्नखटोले की
करते हैं ख्वाहिश तमाम लोग.....
नसीब होता है
ये रुह-ए-एह्सास......
बस
तकदीर वालों को .......

=============
इश्क के फूल खिले सरे-गुलशन
सरे-राह लोग पागल हैं
बस .....
एक फूल की ख्वाहिश ने जाने
कितनों के दिल बेज़ार किये.............

==============
हर पल
मुझे कुछ देने की
ख्वाहिश करते हैं
क्या इश्क की गली में
वो

किसी के तलबगार नहीं???
===============
शाम ने शाम को
हसीं बना

छेड़ा मुझको....
ज़रा

इश्क की छ्तरी से बाहर निकलो
और
नज़ारे करो दुनिया के......

===============
बिन दर्द के
लफ़्ज़ों को न दीजिये दस्तक....
नाज़ुक हैं ये किसी ख्वाब की तरह
बिखर जायेंगे

जो मीठी नींद टूटी............
बस्स...

किसी तरह इन्हें सम्भाले रखिये..........=
================
एक सुकुन-ए-ख्वहिश ने
दर्द दिया इतना.......
अब न चलने का जोश रहा
न वजह-ए-चाहत ही बची............

==============
 इश्क-ए-बागबां का पता न पूछ मुझ से
ये बिखरा है दिल-ए-रह्गुज़र में
ज़रा आँखों को बन्द कर मह्सूस कर इसको
खुश्बू ही खुश्बू मिलेगी ज़र्रे-ज़र्रे में..........

=================

आगे बढ्ना

श्यामल शाम के
धुंधलके तले.........
मन
प्रसन्न...
प्रमुदित....
प्रफ़ुल्लित..... 
अग्रसर
श्यामल छवि ओर........

हवा

हवा आयी
फुनगियाँ हिलीं.....
पन्खुरियाँ खिली......
खुश्बू बिखरी............
...
और
वह आगे बह गयी..........

बुधवार, 20 अक्तूबर 2010

प्रेम का खेल

बात और बात ......
फ़ुसफ़ुसाहटें....
हंसी...ठ्हाके.....
शोर-ओ-गुल......
कोलाहल............
चुप्पी..................
और
चुप्पी के बाद
वापसी...
है न मज़ेदार खेल????

क्या आज प्रेम किया?

उसने
हवाओं से पूछा....
बादलों से पूछा....
पेडों से पूछा....
मिट्टी से पूछा....
पानी से पूछा.....
क्या
उसने आज प्रेम किया?
तो
कलियों ने
धीमे से, फ़ुसफ़ुसाकर कहा--
नहीं
आज सब मेरे साथ थे
पर
वो
कहीं
कविताओं में खोया था...........
 

सपने

 
ऊँचे पहाड़ की चोटियों में
चिनार के सबसे ऊँचे पेड़ के शीर्ष पर
सबसे गहरे समुद्र की तलहटी में
दुनिया की सबसे लम्बी सड़क के
आखिरी मोड़ पर
अनगिनत लोगों की ख़ुशी की भीड़ में
किसी रोती हुई लड़की के
दुःख की खोह में
और
किसी निराश ह़ो चुके लड़के की
विरह-वेदना के चरम पे
मैं
अपने सपनों को,
तमाम जीवित लोगों के सपनों को
घर बनाकर देना चाहती हूँ
क्योंकि
इन जगहों की खुशबू से
'वो'
जो इन्हे तोडता  है
महरूम  है
और
हम....
हम सिर्फ
इसी खुशबू से आबाद हैं!!

'उसे' हटाने की तरकीब

 
हमसे बढ़कर है
वो
नाटककार.....
हर बार
कोशिश रहती है
कि
हम
पहचाने न जाएँ
पर मुखौटों में
हर बार वो
हमें
दबोच लेता है
यही सोच
इस बार
नाटक नहीं
सच में
अपने रूप  में
उसे
दबोच
परास्त करना है हमें............

रविवार, 17 अक्तूबर 2010

अनुकूलन

अनुकूल हवा
अनुकूल मौसम
अनुकूल तन-मन
अनुकूल काल-बेला
सब कुछ अनुकूल-
जीवित-अजीवित
चल-अचल
दृश्य-अदृश्य
जाने
कितने संयोगों का योग है
ये
छोटा-सा
तसल्ली देता शब्द
'अनुकूलन'
इसकी खोज में व्यस्त
मानव
भागता,
बैचैन होता
दर-दर की ठोकर खाता
फिर भी
खुद को न बदलता
नियति मान
निरंतर बढ़ता
और
बढ़ता जाता.

सृष्टि निर्माण से
अब तक
पाँव थमे नहीं
बल्कि
इस भाव की प्यास
बढ़ी
और बढ़ी ही है
इसने 
जन्म  दिए
कई ऐसे भाव
जो
दबे हुए थे
पृथ्वी के गर्भ में
जिसके
जन्म से
उपजी
असहनीय पीड़ा
वो
आज तक सह रही है
निरंतर
निर्विकार.

इस पीड़ा में छुपे
कई गहरे-ज़हरीले घाव
दुःख
दर्द
क्षोभ
विद्वेष
विनाश
और
प्रतिकूलताओं के.
जो
युग-दर युग
किसी ज्वालामुखी से
अपने आकार को
अपने रूप को
और
अपनी प्रकृति को
एक पल भी
नष्ट किये बगैर
बढ़ा रहे हैं.
अट्टहास कर रहे हैं
उन
विद्रूपताओं पर
जो
हमने
उकेरे  हैं धरती की चादर में.

उसके
अंग-अंग
क्षत-विक्षत कर
कुछ कर पाने के
छोटे से सुख से उपजी विश्रांति को
अनुभूत कर पा रहे हैं.
अपनी
उत्तेजना के औजारों को
नाम दे रहे जीवन का
सौंदर्य दृष्टि का.
जड़ों से उखाड़ नहीं पा रहे
मुक्त नहीं कर पा रहे
देह की
मन की 
कुरूपताओं को.
हर बार
सजा रहे
रच रहे
नयी
अद्भुत मिसाल.
जिस से
बह रही घृणा  की 
अजस्त्र धारा
रक्त बन धमनियों में
शक्ति की उपासना करता.
मुक्त कर रहे
एक पल नष्ट किये बिन
कुकुरमुत्तों के
अनगिनत भ्रूण
जहाँ
पहुँच
थोड़ा सुख मिल सके
स्व-सृजन का
अनुकूलन
चरम आनंद का.

शनिवार, 16 अक्तूबर 2010

हवा


हवा आई
फुनगियाँ हिला 
पंखुरियां खिला 
आगे बढ़ गयी.

हर डार-डार
हर पात-पात
फुदकी-चहकी
कनीनिका संग.

कभी शांत चले
कभी क्लांत दिखे
बरसे-हरषे
हुददंग करे.

जाने कौन देस
करे अपना ठौर
मन तरंग-रंग
भटके चहुँ ओर.

स्निग्ध-तरल
उजली-उजली
महकी-बहकी
कर उत्सव्गान.

शांत-सुस्त
हर दिशा-छोर
बहा ले चली
सुर-लय में ढाल.

जहाँ ताल शांत
लहराए लहर
कानन नीरवता
चहकाए  शोर.

न देस की
न विदेस की
न आकाश की
न पाताल की 
उड़ती है यूँ
विहग-गान अनंत
बसती है बन
मन श्वांस-राग
रचती है धरा
धर प्रीत असीम...... 

शुक्रवार, 15 अक्तूबर 2010

मन

प्यासी धरती के
उर से
आह निकल-निकल
करती विकल.

मन चपल-चपल
धरता उमंग
बन पतंग डोर
करें शोर-जोर.

हर खींच-तान
करे मगन मन
चल मगन चाल
कर तेज़ चाल.

हर बार हृदय
नव-कुसुम बन
रच रहा खेल
बसंत-बसंत.

पल-पल रूप बदल
कर फुदक-फुदक
करता श्रृंगार
नव-प्रीति  सा.

खुद को निहार
करे ये सवाल
अब कौन डगर
चलूँ अवश चाल
हर डगर सुस्त
हर मोड़ सुस्त
अब नहीं चुस्त
मेरे मन का हाल.

गुरुवार, 14 अक्तूबर 2010

तुम

जितनी दूर
जहाँ तक
मेरी आँखें
न पहुँच सके
वहां तक
मैं 
जितनी जल्दी पहुंचू
तुम
मुझे
पहले खड़े मिलते ह़ो
मेरे पास
सिमट आते ह़ो.
हवा से तेज़ बहते
मुझको
मुझसे
पहले स्पर्श कर जाते ह़ो.
रोम-रोम
पुलकित कर
रसवर्षा कर
मन-मैल घुला ले जाते ह़ो.
सारी चिंताएं घुलकर
प्यास बढ़ा जाती हैं
मन का ताप बढ़ा जाती हैं.
करती विनम्र आग्रह
विनम्र चाह तुमसे
हर स्पर्श से

रिसाओ अंश-अंश
बस एक बार
बस एक बार....
उमड़-घुमड़ बरसो
मन तूफान बन
गर्जन-कर्षण संग
खुद में
समो ले जाओ तुम
डुबो ले जाओ तुम.........

मंगलवार, 12 अक्तूबर 2010

प्रेम

उसने कहा
गीता पढ़
कुरान पढ़
बाइबिल  पढ़
रामायण पढ़
सब कुछ पढ़ा
सब कुछ गुना
रेशा मिला
बस
ढाई आखर प्रेम का........

प्यार

हर बार प्रण किया
कसमें खायी
दुपट्टे में गांठें बाँधी
पर
हर बार
प्रण तोड़ा
कसमें तोड़ी
दुपट्टों की गांठें खोली
और
डूब के मैंने प्यार किया...........

गणित

कुछ जोड़ा...
कुछ  घटाया...
कुछ गुणा किया....
कुछ भाग किया......
पर जवाब सही नहीं आया
सच!
जीवन का गणित अधूरा रहा
तेरे बिना............................

सोमवार, 11 अक्तूबर 2010

दस्तक

दो साये लिपटे हैं
एक इश्क़
और
एक जुनूँ का मुझसे
मन
गुम्फित है
विचलित है
परेशां है.
मन के
दोनों दरवाज़ों पर
होती निरंतर दस्तक से
हैरां-परेशां ह़ो
मुझ नास्तिक ने
खुदा को दी आवाज़.

प्रेम

शब्दों को
उलट-पुलट
आगे-पीछे कर
कभी
इधर जमा
कभी
उधर सजा
काटा.......छांटा.......बढाया
खुद को डुबो दिया
और
कुछ न किया......कुछ न किया
बस यूँ ही
प्रेम किया!!
प्रेम किया!!!
प्रेम किया!!!!!

किताब के पन्ने

अलमारी में जमी हैं
तमाम किताबें
उनमें  है शामिल
ढेर-सारे पन्ने,
किताबों की दुनिया के
कुछ पन्ने
जाने-पहचाने
दस्तक देते
पुकारते
बैचेन करते
मिलते तो
साथ बैठते,
बतियाते
लंगोटिया यार जैसे.
फुसफुसाते
अपनी
और
मेरी बात
पक्की सहेली जैसे.

मेरे
मौन रहने पर
उदास होने पर
वे
आँखें नम करते
दहाड़े मार रोते
तसल्ली देते
कन्धों पे मेरे
अपना हाथ रखते
मुझे
कन्धों पर टिका
अपने आंसू छिपाते
और
हँसते हुए
फिर मिलने के वादे के साथ
मुस्कराहट के
मोती उपहार में दे
मुझे विदा करते. 

रविवार, 10 अक्तूबर 2010

प्यार

ज्यादा..............
ज्यादा-ज्यादा.....
और ज्यादा........
और...................
और....................
ज्यादा...................
.............................
सीमाहीन..................
विस्फोटक..................
खुद में समो
डुबोता..........................
तैराता.............................
उबारता..............................प्यार.

शुक्रवार, 8 अक्तूबर 2010

इश्क के जाले

इश्क के जाले की
बिसात क्या है बता ?
जो पता न हो
इश्क की मकडी से पूछ
वो बतायेगी  अपने  जालों  की
खूबसूरती,
मुलामियत,
इनायत,
और
रंग-ऐ-खुश्बुओं की किस्में
हर किस्म की
अपनी  ख़ास  पहचान है
हर पहचान  के ख़ास खरीददार  है
खरीददारों  के अपने ख़ास एह्सास है
जिनकी  ख्वाहिश में
जाने कहाँ दूर-दूर से
कारवां आते है
काफ़िले जुड़ते है
कोई पैदल
तो कोई
ऊंट-घोड़ों मे सवार
दिल की सवारी का लुत्फ़ उठाते है
मन्ज़िले-ए-इश्क का पता न पूछ 
किसी से
ये वो राह है दीवानों
जिस पर कदम
खुद-ब-खुद बढ़ जाते है
न ज़ोर-न ज़बरदस्ती
न धक्कम-धुक्की
न रेलम-पेल
मचती है यहाँ
सब का अपना  सफ़र है
सबकी अपनी  मन्ज़िल है
सब इस अहसास के लिए बढ़ जाते हैं
जिसने  महसूस  किया
वो सब कुछ लुटाता है यहाँ
लुटकर शहंशाह  बन जाता है
जिसको  हासिल न हुआ ये अहसास
वो भी यहाँ  
इस रंग में रंग जाता  है
इस फ़ाकामस्ती के दीवाने  है कई
पर
इश्क की मकडी के
ढंग निराले  है यहाँ
वो होती  है मेहरबां कभी-कभी
कभी-कभी खुलते  हैं
इस जन्नत की बगिया के दरवाज़े.......
मैंने
छोड़ दिया है
दुनिया के रहमो-करम पर जीना
बरसों-बरस से बैठी हूँ
इस इंतज़ार में
कि
ज़िन्दगी होगी मेहरबां मुझ पर
खुलेंगे दर इस इबादतगाह के
बनेंगे इश्क के
उम्दा जाले मेरे लिए
जिनपे बुनुंगी मैं
इश्क की मखमली चादर
उन जादुई जालों से करुँगी
एक छोटी-सी गुज़ारिश
दे दें मुझे वो
चंद बीज-ए-इश्क
जिन्हें
बाटूंगी
बिखेरुंगी
लुटाऊँगी
और
उगाउंगी
इश्क की धानी-सुनहरी फ़स्लें......

गुरुवार, 7 अक्तूबर 2010

शगल

दिन गुज़रा
बच्चों सी गिनती गिन-गिन
जाने कितनी बार
गिनतियाँ खत्म हुई
पर
उन्हें नहीं आना था
सो नहीं आये........
पर
इस दिल बहलाने वाले खेल से
दोस्ती ह़ो गयी.
अब जब
अकेले होते हैं
यूँ ही
बिना किसी के इंतज़ार में
गिनतियाँ गिनना मेरा शगल बना.
अक्सर
इस
शगल में
हम भूल भी जाते हैं
कि
आखिर किस के इंतज़ार में
हम
गिनतियाँ गिन रहे हैं
और
बस हम अब तक
मंज़िलें-एहसास से मरहूम  हैं......

बुधवार, 6 अक्तूबर 2010

बहुत हुई खुद से बातें.....
अब चलें
उस दुनिया में....
जहाँ
कोई दूसरी दुनिया रहती है........
जीती है........
बसती  है............
धड़कती है............

दुनिया

आँखें खोले हुए रचती हूँ एक दुनिया
ज्यों ही
आँखें मींची
विचरती है कई दुनिया......

जिद

जिद है कि चाहिए मुझे.... सुकून चाहिए मुझे.....
जो थोड़ा ही किसी के पास.....
दे दे मुझे.......
दे दे मुझे......
सिर्फ इस ज़िन्दगी के लिए!!

सोमवार, 4 अक्तूबर 2010

खैरियत

पल का सौंवा हिस्सा गुज़रा
और
दिल धड़का
पलकें मुंदी
सिहरन हुई
कदम उठे
हाथ बढे
उस पल की
सलामती को
तेज़ हवा से बचाने.....

रविवार, 3 अक्तूबर 2010

श्रेष्ठता

गर्मी, ठण्ड और बारिश के मौसम के बीच अपने को श्रेष्ठ साबित करने की होड़ चल रही थी।
गर्मी ने तल्खी से कहा-"मेरे आये बगैर कोई ठंडक के एहसास को नहीं समझ सकता।
ठण्ड ने इतराते हुए फ़रमाया कि मैंही हूँ जो हर दिल को गुनगुनी धूप और रिश्तों की ऊष्मा देती हूँ
इस तरह के तर्क-वितर्क ने झगडे का रूप ले लिया।
बढ़ते झगडे से बारिश व्यग्र हुई , परेशान हुई।
जब कुछ सूझा नहीं तो बहुत तेज़ बरस गयी ।
इस बारिश के साथ ही बरखारानी दोनों के घमन्ड और अहम को अपने साथ बहा ले गयी।
इसके बाद इन दोनों मौसमों में कभी तकरार नहीं हुई।