शनिवार, 30 अक्तूबर 2010

यादें


चीड़ों पर
पहाड़ों पर
चमकती चांदनी-सी
निश्छल..निष्कपट..
मचलती तितली की तरह..
फुदकती गिलहरी की तरह
शाख-शाख चढ़ती-उतरती
कहीं चुम्बन
कहीं गलबहियां डाल
गरमाहट भर
अखरोट के कवच-सी सुरक्षा देती
फुनगियों पर दौड़ती
फुरफुराहट में
प्यार की  मिश्री घोल
हवा में बिखेरती...
हाथ बढ़ा
मुट्ठियों में कैद करने की गरज
बेजार करती
हाथों को महका
रूप-रस में घुल जाती
प्राण-सुर मिलाती
पुकारती सोनचिरैया-सी
बिखर जाने रग-रग में
औषधि बनकर.........
 

2 टिप्‍पणियां:

राजेश उत्‍साही ने कहा…

ताजगी से भरी एक कविता।

दिगम्बर नासवा ने कहा…

यादें ऐसी ही होती हैं ... पता नहीं क्यूँ चुपके से चली आती हैं ... बहुत अच्छी राक्स्हना है ...