बुधवार, 24 नवंबर 2010

शाम

क्या होता है शाम के धुंधलके में जो मन अकेले घबराता है?
क्या होता है कि रौशनी कांच की किरचों-सी चुभने लगती है?
क्या होता है कि दिल अथाह संमदर में डूब जाने को बैचेन हो जाता है?
क्या होता है कि मन भंवरे-सा बैचेन हो फिर वही राग गुनगुनाने लगता है?
क्या होता है कि दिन भर में समेटी सारी तसल्लियां हाथ छुड़ा रुठ जाती है?
क्या होता है कि बेफिक्र तबियत दिल की बस्ती के लिये फिक्रमंद हो उठती है?
क्या होता है कि जो खामोशी संगीत सुना रही होती है वो अपना सुर बदल बेसब्र कर देती है?
सच!!
बहुत सवाल है...
बहुत दुविधायें हैं...
जिनके फेन में डूबती-उतराती
खुद को कभी खोती
तो कभी पाती
सांसों की लय से अलग
नसों की फड़्फड़ाहट से विलग 
बिबों-प्रतिबिबों से परे
दूरी की आभा से दीप्त
आभासी कल्पनाओं को ढ़ेर किये
उसकी राख से मांजती अंधकार
उगाती सूरज अपार
क्षितिज के कोर-कोर में
तानती इंद्रधनुष अनंत
सिरे पर झूलती अविराम
देह उड़ रही
रच रही
अमिट भूगोल जिस पे तरंगित नक्शे आर-पार.....
 
तुम्हारी शीतल छांव की खोज में......

3 टिप्‍पणियां:

सुशीला पुरी ने कहा…

मान गए आपको ....!!!! लाजवाब !!!!

विमलेश त्रिपाठी ने कहा…

अत्छी कविता है... बधाई...

राहुल यादव ने कहा…

बहुत सवाल है...
बहुत दुविधायें हैं...

sab kuch kah diya