गुरुवार, 11 नवंबर 2010

प्रेम

जितना सीधा..उतना उल्टा...
जितना ऊपर...उतना नीचे...
जितना हल्का...उतना भारी...
जितना उथला...उतना गहरा...
जितना फीका...उतना गहरा..
जितना कड़ुवा...उतना मीठा...
जितना आज़ाद...उतना जकड़ा...
जितना सहेजा...उतना बिखरा...
रग-रग में बह्कर
मुझे डुबो लिया अपने में
ढ़ाई आखर प्रेम ने...........

4 टिप्‍पणियां:

प्रदीप कांत ने कहा…

पता नहीं फिर प्रेम कैसा है और क्या है?

Neeraj ने कहा…

आप कई सारे उन लेखिकाओं से अच्छा लिखती है जिनकी टिप्पणियों की संख्या ४०-५० पार कर जाती हैं| लिखते रहिये ...

एक सवाल , जब हिंदी में लिखते हैं तो ब्लॉग का नाम इंग्लिश में क्यूँ?

जयकृष्ण राय तुषार ने कहा…

vey nice arpitaji

अपर्णा ने कहा…

सरल, सघन, गहन ... सुन्दर प्रेम !