स्त्री
न,
समर्पण की धरती का हिस्सा नहीं बनना मुझे.
गुलाबी होठों की प्यास से विचलित हुए बगैर ऊंचे-नीचे रास्ते चलते उस झील का सफर तय करना है मुझे जिसकी अतल गहराई में बसी शीतलता दे साँसों में जीवन.
जल का कोमल स्पर्श दे होठों में स्निग्ध मुस्कान. मैं मौन के प्रकाश में प्रकाशित धरती के रह्स्यों को खुद में समेटे हुए हूँ. मेरे गोलक वक्षों में उफनते सपनों की नदी बहती है जिसे अपनी छातियों में धधकते असंख्य ज्वालामुखी को शांत करने वाली साहस भरी बांहों और अपनत्व भरी छाती की जकड़न चाहिये. जिसकी पकड़ में वृक्ष सी गहराई[जैसी जड़ों की होती है] और प्रकाशोन्मुखी चाह हो.
हाँ!! मुझे प्रेम के उफनते सोतों में वो उफान चाहिये जिसके प्रच्छालन से मौसम [स्त्री-मन] में जमी गर्द-ओ-गुबार धुल रौशनी का वो फव्वारा छूटे जिसके सपनों के आकाश में तने इंद्रधनुष के एक छोर को पकड़े तुम हो और एक तरफ मैं......
9 टिप्पणियां:
बहुत बढ़िया लिखा है आपने.
सादर
kavita hamesha ek indradhanush hi maangti hai......kshadik hi sahi........indradhanush aata bhi hai to kavita mein hi keval.......
कल 03/08/2011 को आपकी एक पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
धन्यवाद!
बहुत सुन्दर रचना, बहुत खूबसूरत प्रस्तुति.
बेहद गहन
गहन भाव लिए अच्छी प्रस्तुति
गहन भावों के साथ सुंदर शब्द...
बहुत सुन्दर गध्यकविता
why did u stop writing....????
you write so very well..
anu
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