जितना सीधा..उतना उल्टा...
जितना ऊपर...उतना नीचे...
जितना हल्का...उतना भारी...
जितना उथला...उतना गहरा...
जितना फीका...उतना गहरा..
जितना कड़ुवा...उतना मीठा...
जितना आज़ाद...उतना जकड़ा...
जितना सहेजा...उतना बिखरा...
रग-रग में बह्कर
मुझे डुबो लिया अपने में
ढ़ाई आखर प्रेम ने...........
4 टिप्पणियां:
पता नहीं फिर प्रेम कैसा है और क्या है?
आप कई सारे उन लेखिकाओं से अच्छा लिखती है जिनकी टिप्पणियों की संख्या ४०-५० पार कर जाती हैं| लिखते रहिये ...
एक सवाल , जब हिंदी में लिखते हैं तो ब्लॉग का नाम इंग्लिश में क्यूँ?
vey nice arpitaji
सरल, सघन, गहन ... सुन्दर प्रेम !
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