मंगलवार, 16 अक्तूबर 2012

डर...

 
 
आँखों की रौशनी में दुबका
जब-तब उमेठता है कानों को
फिसल कर राह
सरकता है बालों की लम्बाई में और
पसर जाता है हथेलियों में

कोमल नाजुक तान को
दीर्घ गंभीर नाद में
किसी डरावनी चीख सा प्रतिध्वनित करता
उजालों में अदृश्य दृश्यों को उकेरता
मुस्कुराता हाथ मिलाता बगल में बैठता समय
जैसे किसी भूले दुःस्वप्न की दस्तक

जो हूं उससे इतर दिखने की दुविधा में 
जीता 
जीतता 
और बस 
जीतता जाता है
 





 
 
 

शनिवार, 9 जुलाई 2011

स्त्री

न,

समर्पण की धरती का हिस्सा नहीं बनना मुझे.

गुलाबी होठों की प्यास से विचलित हुए बगैर ऊंचे-नीचे रास्ते चलते उस झील का सफर तय करना है मुझे जिसकी अतल गहराई में बसी शीतलता दे साँसों में जीवन.
जल का कोमल स्पर्श दे होठों में स्निग्ध मुस्कान. मैं मौन के प्रकाश में प्रकाशित धरती के रह्स्यों को खुद में समेटे हुए हूँ. मेरे गोलक वक्षों में उफनते सपनों की नदी बहती है जिसे अपनी छातियों में धधकते असंख्य ज्वालामुखी को शांत करने वाली साहस भरी बांहों और अपनत्व भरी छाती की जकड़न चाहिये. जिसकी पकड़ में वृक्ष सी गहराई[जैसी जड़ों की होती है] और प्रकाशोन्मुखी चाह हो.
हाँ!! मुझे प्रेम के उफनते सोतों में वो उफान चाहिये जिसके प्रच्छालन से मौसम [स्त्री-मन] में जमी गर्द-ओ-गुबार धुल रौशनी का वो फव्वारा छूटे जिसके सपनों के आकाश में तने इंद्रधनुष के एक छोर को पकड़े तुम हो और एक तरफ मैं......

सोमवार, 17 जनवरी 2011

स्मृति.....

प्रवाल-सी अनूठी
शैवालों-सी रंग-बिरंगी
मीन-सी व्याप्त
मन के समंदर में........
 
तैरती....विचरती....
रहस्यों में ख़ुद को खोजती...
 
कुछ चुनती
कुछ बीनती
कुछ बिखेरती..
सहसा
विचलित-सी/बियाबां में भटकती
हांफती-दौड़ती
छू जाती सघन तारामंडल
प्रकाशित जो
स्मृति के उजास से......

गुरुवार, 6 जनवरी 2011

तुम


आँखें बंद
अंधेरे में तुम....
आँखें खुली
उजाले में तुम....
 
मुट्ठी बंद
तासीर में तुम...
मुट्ठी खुली
हवा में तुम....
 
क़दम रूके
ज़र्रे-ज़र्रे में तुम...
क़दम बढ़े
कारवां में तुम...
 
मौन पसरे
सन्नाटे में तुम....
शब्द बिखरे
हर्फ़-हर्फ़ में तुम....
 
स्वर-लहरियाँ बही
तान में तुम....
स्वप्न बुनें
ताने-बाने तुम.....
 
निढ़ाल....निःशक्त..... निःशब्द.....
ज़ार-ज़ार रूदन में तुम....
 
खुशी के बादल तुम....
मुस्कुराहट....हंसी की बारिश तुम.....
 
मन नैया के केवटिया तुम..............

बुधवार, 1 दिसंबर 2010

तुम्हारा आना.....

 

मैं

अपने हिस्से का

जागना-सोना

हंसना-रोना

पीड़ा-उदासी

शोर-खामोशी

सलीके में रहना

इसके उलट चलना

बुरी नज़र से गुज़रना

सपनों को जीना

अनोखेपन में बसना

आसमान में उड़ना

पलकों में सपने सजाना

सबों की स्मृति से गुम हो जाना

प्रतीक्षा में आंसू बहाना

चहक-खिलखिलाहट में महकना

मौन के रेशों में उलझना

रुदन की पीली धूप में तपना

सब कुछ पूरा का पूरा

जी लेना चाहती हूं

तुम्हारे आने से पहले.....

 

रहूं शेष

बस!

उतना

कि

रंग सकूं खुद को

वसंत की कोरी कविता-सा.......

तुम्हारे आने के बाद.....

बुधवार, 24 नवंबर 2010

शाम

क्या होता है शाम के धुंधलके में जो मन अकेले घबराता है?
क्या होता है कि रौशनी कांच की किरचों-सी चुभने लगती है?
क्या होता है कि दिल अथाह संमदर में डूब जाने को बैचेन हो जाता है?
क्या होता है कि मन भंवरे-सा बैचेन हो फिर वही राग गुनगुनाने लगता है?
क्या होता है कि दिन भर में समेटी सारी तसल्लियां हाथ छुड़ा रुठ जाती है?
क्या होता है कि बेफिक्र तबियत दिल की बस्ती के लिये फिक्रमंद हो उठती है?
क्या होता है कि जो खामोशी संगीत सुना रही होती है वो अपना सुर बदल बेसब्र कर देती है?
सच!!
बहुत सवाल है...
बहुत दुविधायें हैं...
जिनके फेन में डूबती-उतराती
खुद को कभी खोती
तो कभी पाती
सांसों की लय से अलग
नसों की फड़्फड़ाहट से विलग 
बिबों-प्रतिबिबों से परे
दूरी की आभा से दीप्त
आभासी कल्पनाओं को ढ़ेर किये
उसकी राख से मांजती अंधकार
उगाती सूरज अपार
क्षितिज के कोर-कोर में
तानती इंद्रधनुष अनंत
सिरे पर झूलती अविराम
देह उड़ रही
रच रही
अमिट भूगोल जिस पे तरंगित नक्शे आर-पार.....
 
तुम्हारी शीतल छांव की खोज में......

शुक्रवार, 19 नवंबर 2010

याद

खामोश..वीरान शाम के सीने से

अपनी पकड़ छुड़ा

बदहवास

जंज़ीरें तोड़ती

हाथ छुड़ाती

भागती चली आती

समा जाती देह की पोर-पोर में

मन के कोलाहल को घोले

रिसती आँखों के रास्ते

खट्टी-मीठी, कड़वी-फीकी

नमकीन-कुरकुरे स्वाद में.........

........................तुम्हारी याद!!!